गर्मियों में उनकी संज्ञा कितनी उमसभरी शाम को न शीतल करती!
अपने घर के आँगन में आसन जमा बैठते गाँव के उनके कुछ प्रेमी भी खजड़ियों और
करतालों की भरमार हो जाती। एक जाते, उनकी प्रेमी मंडली उसे दुहराती, तिहराती लगता
- एक निश्चित ताल, एक निश्चित
गति से जुट खाते।
पद बालगोबिन भगत कह धीरे-धीरे स्वर ऊँचा होने उस ताल - स्वर के चढ़ाव के साथ श्रोताओं के मन भी ऊपर उठने लगते। धीरे-धीरे मन तन पर हावी हो जाता
होते होते, एक
क्षण ऐसा आता कि बीच में खँजड़ी लिए बालगोबिन भगत नाच रहे हैं और उनके साथ ही सबके
तन और मन नृत्यशील हो उठे। हैं सारा आँगन नृत्य और संगीत से ओतप्रोत है!