भगवद् गीता में वर्णित उदाहरण/ उपमाएँ भाग -१
आज हम उन उपमाओं और उदाहरणों पर नज़र डालेंगे जिन्हें भगवान ने भगवद् गीता में योग के गहरे अर्थ को स्पष्ट रूप से समझाने के लिए उद्धृत किया है। भगवान के मुख कमल से निकले सभी उदाहरण/उपमाएँ सर्वश्रेष्ठ और आदर्श हैं जो हमें प्रबुद्ध करता है । इनमें से कुछ उदाहरण हमें बताते हैं कि इस सांसारिक जीवन में कैसे जीना चाहिए, कुछ हमें ईश्वर के अस्तित्व को समझाते हैं, कुछ हमारे संदेहों को दूर करते हैं। आइये उनमें से हर एक को देखते हैं।
यावानर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके। तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः
॥2.46॥
जैसे एक छोटे जलकूप का समस्त कार्य सहजता से सभी प्रकार से विशाल जलाशय से तत्काल पूर्ण हो जाता है, उसी प्रकार समान रूप से परम सत्य को जानने वाले, वेदों के सभी प्रयोजन को पूर्ण करते हैं।
यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः। इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।2.58।।
जिस तरह कछुआ अपने अङ्गोंको सब ओरसे समेट लेता है, ऐसे ही जिस कालमें यह कर्मयोगी इन्द्रियोंके विषयोंसे इन्द्रियोंको सब प्रकारसे समेट लेता (हटा लेता) है, तब उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित हो जाती है।
इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते। तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि।।2.67।।
जो मन लगातार विषय-वस्तुओं पर ही ध्यान केन्द्रित करता है तथा इन्द्रियों के साथ ही घूमता रहता है, वह मनुष्य की विवेक-शक्ति को पूरी तरह नष्ट कर देता है। जिस प्रकार हवा ,नाव को उसके मार्ग से हटा देती है, उसी प्रकार मन भी साधक को उसके आध्यात्मिक मार्ग से हटाकर इन्द्रियों के विषयों की ओर मोड़ देता है।